“अब दर्शकों का मुझ पर जो भरोसा बना है, उसे टूटने नहीं दे सकता” -पंकज त्रिपाठी

Pankaj Tripathi

“अब दर्शकों का मुझ पर जो भरोसा बना है, उसे टूटने नहीं दे सकता” -पंकज त्रिपाठी

बॉलीवुड में पिछले दो तीन वर्षों से सिनेमा में बदलाव की लंबी चौड़ी बातें की जा रही हैं. पर जमीनी हकीकत यह है कि बॉलीवुड की कार्यशैली में अभी भी कोई खास बदलाव नहीं आया है. आज भी फिल्मकार लकीर के फकीर बने हुए हैं. आज भी हर फिल्मकार प्रपोजल बनाने में लगा हुआ है. जिसके चलते कोविड महामारी के बाद हिंदी फिल्में लगातार बाक्स ऑफिस पर धराशाही हो रही हैं. इतना ही नहीं ओटीटी प्लेटफार्म पर भी दर्शक हिंदी फिल्मों से दूरी बनाने लगा है. इसके बावजूद हिंदी भाषी क्षेत्र बिहार के एक गांव से आने वाले अभिनेता पंकज त्रिपाठी अपनी सफलता का डंका बाक्स आफिस के साथ साथ सिनेमाघरों में भी लगातार बजा रहे हैं. उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार, फिल्मफेअर पुरस्कार, आइफा अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड से नवाजा जा चुका है. उन्होंने हिंदी ही नहीं बल्कि रजनीकांत के साथ तमिल फिल्म ‘‘काला’ में भी अभिनय किया है.

 

किसान का बेटा होने के कारण आप बचपन में खेतों में अपने पिता की मदद किया करते थे. फिर अभिनेता कैसे बन गए?

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मैंने अभिनय को नहीं चुना, बल्कि अभिनय ने मुझे चुना है. स्नातक तक की पढ़ाई करने तक मैं नहीं जानता था कि कभी मैं अभिनय करुंगा. मैं गोपालगंज, बिहार में बरौली ब्लॉक के बेलसा गांव का रहने वाला हॅूं. छोटा सा गाँव है. गाँव के लोग किसानी व पंडिताई करते हैं. मैं दसवीं तक वहीं रहा हॅूं और गाँव के ही स्कूल में पढ़ाई की है. कभी कभी पिताजी की मदद करने के लिए खेत पर चला जाता था. मेरे गाँव में छठ पूजा या कोई दूसरा त्यौहार हो, तो उस दिन नाटक करने की परंपरा है. यह बहुत पुरानी परंपरा है. बाप दादा के जमाने से चली आ रही है. आज भी यह परंपरा मौजूद है. कई बार किसी न किसी वजह से किसी वर्ष नाटक नहीं भी होता है. यह नाटक गांव के लोग ही मतलब चाचा व भईया वगैरह सभी मिलकर किया करते हैं. एक वर्ष यह हुआ कि नाटक में जो लड़का लड़की का किरदार निभा रहा था, वह किन्हीं वजहों से छठ के अवसर पर गाँव नहीं पहुँच पाया. अब उसकी वजह कोई दूसरा लड़की बनने को तैयार नहीं था. तो मैंने कह दिया कि मैं लड़की बन जाऊँगा. नाटक के निर्देशक गांव के ही लालभूषण तिवारी थे. उन्होंने कहा कि पहले अपने पिताजी से इजाज़त लेकर आओ. उन्हें दिक्कत नहीं होनी चाहिए. मैंने घर जाकर बात की. मेरी मां व पिताजी ने मुझसे ही पूछा कि, ‘तुम्हारी इच्छा है?’, मैंने हामी भरी. तब मेरे पिता जी ने एक शर्त के साथ इजाजत दी. उन्होंने कहा कि नाटक में लड़की तो बन रहे हो, लेकिन नाटक में किसी महत्वपूर्ण इंसान का भी किरदार निभाना. तो नाटक के अंत में जज का एक छोटा सा किरदार था. मैंने लड़की बनने के साथ ही जज का भी किरदार निभाया. जज बड़े पोस्ट वाला इंसान था. तो मेरे पिता जी की शर्त भी पूरी हो गयी. पूरे नाटक में लड़की था और अंत में जज था.

 

छठ पूजा पर आपने मजाक में नाटक में लड़की का किरदार निभा लिया. पर उसके बाद अभिनय की शुरूआत कैसे हुई?

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जी हाँ! यह नाटक तो मजाक में ही किया था. उसके बाद मैं पढ़ाई करने के लिए पटना शहर आ गया. वहाँ पर शाम को भारतीय कला मंदिर, विद्यापति भवन व रंग संग्रहालय में नाटक, गायन व नृत्य के कार्यक्रम देखने जाने लगा. यहीं पटना में कला व संस्कृति के केंद्र थे. धीरे धीरे इन कलाओं के प्रति मेरी रूचि बढ़ने लगी. फिर एक दिन मेरे दिमाग में आया कि मुझे भी नाटक करना चाहिए. यह अच्छा काम है. फिर मैं भी एक दो नाट्य संगठनों से जुड़ गया. उनके नाटकों के रिहर्सल के दौरान जाकर चाय वगैरह पिलाने लगा. साफ सफाई करने लगा. धीरे धीरे उन लोगों ने अपने नाटकों में छोटे छोटे किरदार देना शुरू कर दिया. इससे मुझे मजा आने लगा और अभिनय के प्रति रूचि बढ़ती गयी. मैंने 1996 से 2001 तक पटना में रहते हुए नाटकों में अभिनय किया. फिर मैंने सोचा कि इसी काम को कैसे आगे बढ़ाया जाए. तब मुझे किसी ने बताया कि दिल्ली के ‘‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा ’ से ट्रैनिंग लेनी चाहिए. यहाँ पर ट्रैनिंग लेने के लिए छात्रवृत्ति (scholarship)मिलती है, पैसे नहीं देने होते. पर चयन बहुत मुश्किल से होता था. मेरे वक्त में हर वर्ष पूरे भारत से सिर्फ बीस लोगों का ही चयन होता था. मैनें तीन बार कोशिश की. तीसरी बार में ‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा’में मेरा चयन हो गया. तीन वर्ष तक मैंने बेहतरीन शिक्षकों से अभिनय की ट्रैनिंग हासिल की. मैं दिल्ली में ही रह रहा था, तभी मुझे घर बैठे ही फिल्म ‘‘रन’में छोटा सा किरदार निभाने का अवसर मिल गया था. फिर 16 अक्टूबर 2004 को मैं मुंबई आ गया और स्ट्गल का दौर चला. लेकिन अब मेरा अभिनय कैरियर सरपट दौड़ रहा है.

 

 

आपके कैरियर में कितना संघर्ष रहा?

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संघर्ष तो करना पड़ा. इसकी मूल वजह यह है कि हम गैर फिल्मी परिवार से आए हैं. फिल्म इंडस्ट्री का हम हिस्सा नहीं थे, तो फिल्म इंडस्ट्री की कार्यशैली वगैरह को समझने में थोड़ा समय लगा. जब मैं मुंबई पहुंचा था, तो मुझे यह भी नहीं पता था कि फिल्म इंडस्ट्री है कहाँ ? ऐसे में किसी इंडस्ट्री को समझने में दस साल तो लग ही जाते हैं. दूसरी बात यहाँ मसला कला का है. कला ऐसी चीज है, जो तब तक दिखायी नहीं देती, जब तक कलाकार को उसे करके दिखाने का मौका ना मिले. जब तक कलाकार को अच्छा किरदार नहीं मिलेगा, तब तक यह बात उभर कर नही आती है कि वह कितना अच्छा कलाकार है. किसी भी इंसान की शक्ल पर नहीं लिखा होता है कि वह कितना अच्छा कलाकार है.

 

अब आपको अपना कैरियर किस दिशा में जाता नजर आ रहा है?

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अच्छी स्थितियाँ है. एक संतुलन बन रहा है. अब इस स्थिति में पहुंच गया हूं कि सही किरदार ना होने पर फिल्में मना कर देता हूं. अभी कल ही मेरे पास एक फिल्म का ऑफर आया था. यदि मैं उस फिल्म को करने के लिए हामी भरता, तो अच्छे पैसे मिल जाते. पर मुझे कहानी व किरदार पसंद नहीं आया, अतः मना कर दिया. अब दर्शकों का मुझ पर जो भरोसा बना है, उसे टूटने नहीं दे सकता. जब फिर आर्थिक मजबूरी आएगी, तब भले घटिया काम करूं. अभी मैंने तय किया है कि मुझे दर्शकों का जो प्यार मिला है, उनका मुझ पर भरोसा हुआ है, उसे टूटने ना दूँ. अब मैं कुछ ज्यादा ही सतर्कता के साथ फिल्में चुन रहा हूं. अब तक के मेरे करियर की खासियत रही है कि जिन फिल्मों में भी मैंने अभिनय किया, उनमें लोगों को मेरा काम पसंद आया.अब इसे आप मेरी तकदीर कहें,या मेरा अपना अभिनय का तर्जुबा कहें या ईश्वर का आशीर्वाद कहें.

 

आपने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय की ट्रैनिंग लेने के बाद सबसे पहले एक कन्नड़ फिल्म में हीरो के दोस्त का किरदार निभाया.फिर आपने हिंदी फिल्म ‘रन’में छोटा सा किरदार निभाया. जब बड़ा काम करने की इच्छा हो तो फिर छोटे किरदार से शुरूआत करने के पीछे आपकी क्या सोच रही?

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मेरे मन में बड़ा काम करने की कोई इच्छा नहीं थी. मैं अपने अभिनय से रोजी रोटी व घर का खर्च चलाना चाहता था. मुझे पता था कि मैं एक नया अभिनेता हूँ, तो कोई भला मुझे बड़ा किरदार क्यों देने लगा? अगर किसी ने बड़ा किरदार दे भी दिया, तो क्या मैं उसके साथ न्याय कर पाऊँगा?. 

बड़े किरदार को करने का मौका मिलना उस दौर में काफी मुश्किल था, अब तो आसान हो गया है. ओटीटी के आने व डिजिटल के बढ़ते प्रभाव के चलते अब दुनिया भर का कंटेंट बन रहा है. अब लोग नए कलाकार को लेकर प्रायोगिक सिनेमा भी बना रहे हैं. क्योंकि वह मानकर चलता है कि उसके लिए कहानी हीरो है. मगर जब मैंने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था, उस वक्त कहानी हीरो नहीं थी. उस वक्त कहानी दोयम दर्जे पर हुआ करती थी, हीरो तो स्टार कलाकार ही हुआ करते थे. ऐसे दौर में भला कौन मुझे हीरो बनाता.

पहले फिक्स पैटर्न था. एक हीरो, एक हीरोईन, एक विलेन, हीरो के पिता, हीरो का दोस्त. यही पांच छह मुकम्मल किरदार हुआ करते थे, बाकी सभी ‘आया राम गया राम’हुआ करते थे. इसलिए हीरो बनने की मेरे अंदर चाहत नहीं थी और मैं उसके लिए प्रयास भी नहीं कर रहा था. तो जो भी अच्छे किरदार मिल रहे थे, मैं करता जा रहा था. मैं कभी ‘चूजी’ नहीं था. मैं लीड किरदार करने के लिए आया ही नहीं था. मैं तो अभिनय करने आया था.

फिल्म ‘गैंग्स आफ वासेपुर’में मनोज बाजपेयी सहित कुछ दिग्गज कलाकारों के साथ 36 नए कलाकार थे, इनमें से कुछ कहाँ गायब हुए पता नहीं. पर कुछ हैं, ऐसे में आपका सुल्तान का किरदार क्यों लोकप्रिय हुआ था?

मुझे खुद नहीं पता कि दर्शकों को यह किरदार क्यों भा गया था. मेरी समझ से सुल्तान का किरदार इसलिए लोकप्रिय हुआ होगा, क्योंकि इसे निभाने वाला मैं एक अनजाना चेहरा था. इसके अलावा बहुत ही हिंसक और ब्रूच्युअल किरदार था. वह परदे पर बहुत ज्यादा हिंसक करते हुए दिखायी नहीं देता है. पर उसकी प्रजेंस को जिस तरह से निर्देशक अनुराग कश्यप ने दिखाया, उससे वह हिंसक ही उभरता है. जब अभिनेता की अपनी कोई इमेज न हो तो निर्देशक के लिए उस अभिनेता को एक नई ईमेज में स्थापित करना आसान हो जाता है. अब मैं सुल्तान का किरदार निभाता, तो शायद उतना असर न पड़ता.

क्योंकि अब लोग मुझे कॉमेडी करते हुए भी देख चुके हैं. जब मैने ‘गैंग्स आफ वासेपुर’की थी, तब तक लोगों को पता नहीं था कि यह अभिनेता हँसाता भी है. अब तो लोग मुझसे कहते हैं कि उन्हें यकीन ही नहीं होता कि मेरे जैसा साफ्ट स्पोकेन, सहृदय, विनम्र इंसान सुल्तान जैसा किरदार निभा सकता है. यह निर्देशक की खासीयत है. इसलिए कहता हूँ कि एक नया चेहरा था, जिसे निर्देशक ने एक नए रूप में पेश किया और वह लोकप्रिय हो गया.

 

गैंग्स आफ वासेपुर’ के बाद आपकी सर्वाधिक चर्चा ‘नील बटे सन्नाटा’में हुई थी. यहां तक की यात्रा कैसी रही?

देखिए,‘गैंग्स आफ वासेपुर’के बाद मेरे पास ऐसे किरदार ही आ रहे थे, जिनमें बंदूक या गन लेकर चलना होता था और मैं ऐसी फिल्में विनम्रता के साथ इंकार कर रहा था. जब अश्विनी अय्यर तिवारी मेरे पास ‘नील बटे सन्नाटा’का आफर लेकर आयी, तो उन्होंने कहा कि मेरा किरदार किताबें लेकर चलता है. तो मुझे बड़ा सकून मिला. मैंने कहा भी कि मुझे पहली बार ऐसा किरदार मिला है जिसमें किताबें मेरे हाथ में है. मुझे मेरे शिक्षक याद आ गए, जो कि स्कूटर पर किताब लिए आते हैं और हर विद्यार्थी को वह घोड़ा बनाना चाहते हैं. मैं ऐसे शिक्षकों के साथ रहा हूँ, जो अपने छात्र को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी करते हैं. अभिनय में मेरे एक गुरू दिनेश खन्ना जी रहे हैं, जिन्हें रात में दो बजे भी फोन करो, तो वह कहते थे कि मैं आ रहा हूँ.

इन दिनों वह भारतेंदुनाट्य अकादमी, लखनऊ के निर्देशक हैं. तो मेरे जीवन में कुछ शिक्षक रहे हैं, जो कि छात्रों को पढ़ाने व उन्हें आगे बढाने के लिए बहुत इच्छुक रहते थे. यह सब मुझे याद था. मैने ‘नील बटे सन्नाटा’की निर्देशक अश्विनी अय्यर से कहा कि इस किरदार इसी तरह के कुछ एलीमेंट डालता हॅूं. उन्होंने मुझे ग्रीन सिग्नल दिया. फिर मैंने उस किरदार को फिजिकली बदली. सभी का अपना फिजिकल मोमेंट है. हर बच्चे को घोड़ा बनाना वाहते हैं. इस तरह ‘नीलबटे सन्नाटा ’बनी. स्वीट सी मीठी फिल्म थी. मेरे किरदार में थोड़ा ह्यूमर आ गया. मेरे अति उत्साह ने उसे थोड़ा रोचक बना दिया. लोगो ने इसे काफी पसंद किया. आज भी लोग प्रिंसिपल श्रीवास्तव के लिए मुझे फोन करते हैं.

 

नील बटे सन्नाटा’आपके कैरियर की पहली फिल्म थी, जिसने लागत से चार गुना ज्यादा कमाया था. इससे आपकी जिंदगी पर क्या असर पड़ा? फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की सोच में किस तरह का बदलाव आया?

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मुझे तो कुछ ज्यादा फर्क नजर नहीं आया था. हाँ ! फर्क यह पड़ा था कि उसके बाद लोग मुझे हल्के फुल्कें व ह्यूमरस किरदारों के लिए बुलाने लगे थे. फिल्मकारों की समझ में आया कि पंकज को गैंगस्टर के अलावा कुछ दूसरे किरदारों में लेकर प्रयोग किया जा सकता है. मतलब यह कि ‘नील बटे सन्नाटा’के बाद मुझे विविध प्रकार के किरदार मिलने लगे.

 

कहा जाता है कि आपको कमर्शियल सफलता ‘ओटीटी’से मिली?

Amazon Prime Video

जी हाँ ! मुझे कमर्शियल सफलता ‘मिर्जापुर’से ही मिली. इसके बड़े बड़े पोस्टर व होर्डिंग्स लगे, जिसमें मेरी तस्वीर प्रमुखता से छायी रही. इसके बाद फिल्मों में ‘स्त्री’भी बहुत बड़ी कमर्शियली सफल फिल्म रही. मेरा किरदार मेरूदंड की ही तरह था. ओटीटी पर ‘मिर्जापुर’के बाद ‘गुंजन सक्सेना’,‘लूडो’कागज’‘मिमी’सफल रही. यह सभी फिल्में ओटीटी पर देखी गयी टॉप पाँच में रहीं.

‘डिज्नी हॉट स्टार पर ‘क्रिमिनल जस्टिस’काफी लोकप्रिय है.‘ओटीटी’पर यह समस्या नहीं है कि फिल्म कितने स्क्रीन्स पर लग रही है. ओटीटी में फिल्म लोगों तक पहुँच जाती है, लोगों को फिल्म देखने के लिए सिनेमाघर तक नहीं जाना पड़ता. फिल्म का प्रमोशन कितने लोगों तक फिल्म की जानकारी पहुँचा पाया, फिल्म के शो का समय क्या है. इस तरह की समस्याएं होती हैं. मगर ओटीटी का प्रमोशन डिजिटली होता है. इंसान जब चाहे तब अपने मोबाइल, लैपटाप या कम्प्यूटर पर ओटीटी की फिल्म/वेब सीरीज देख सकता है.

ओटीटी पर बाक्स आफिस के ओपनिंग कलेक्शन या वीकेंड कलेक्शन का दबाव नहीं है. सिर्फ कहानी का अच्छा होना आवश्यक है. ओटीटी ने मुझे व्यावसायिक सफलता की ओर भेजा . मैं आबू धाबी में आइफा में था. वहां जिस तरह से लोग मेरे अभिनय के दीवाने नजर आए, जिस तरह से उन्होंने खड़े होकर मेरा सम्मान किया, उससे मैं भी स्तब्ध था. लोगों की तालियाँ रूक नहीं रही थीं. अभी कल ही एसबीआई के हेडक्वाटर, बीकेसी बांद्रा गया था, वहां पांच छह सौ लोग काँच की खिड़कियों के पीछे खड़े होकर मुझे देख रहे थे.

मेरा अभिवादन कर रहे थे. मैं हाथ जोडे़ हुए विस्मित था. इससे मुझे अहसास होता है कि मेरे किरदार इन तक पहुँचे और इनकी यादों में हैं. मुझे यह कर्ज लगता है. इस कर्ज को हम कैसे उतारेंगे, पता नहीं. मैंने सपने में नहीं सोचा था कि कभी गांव के बनारस तिवारी का लड़का, जो अपनी पारंपरिक पंडिताई या सरकारी नौकरी में न जाकर अपनी अलग शोहरत से कुछ अलग कर जाएगा. मैं हार्ड कोर हिंदी भाषी छात्र रहा हॅूं. दसवीं तक की पढ़ाई गांव में रहकर ही की है.

 

ओटीटी से सिनेमा को फायदा होगा या नुकसान होगा?

Disney + Hotstar

नुकसान नहीं होगा. सिनेमा की गुणवत्ता अच्छी होगी. क्योंकि वेब सीरीज में कंटेंट पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है. क्योंकि बटन दर्शक/ग्राहक के हाथ में है, उसे पसंद नहीं आएगा, तो तुरंत बंद कर देगा. जबकि सिनेमागृह में टिकट खरीदकर पहुँच गए, तो बात खत्म. वहां दर्शक कुछ नहीं कर सकता. पर वेब सीरीज दर्शक ने देखना छोड़ दिया, तो नुकसान हो जाएगा. इसके अलावा वेब सीरीज पर कोई सेंसरशिप नहीं है. तो लोग अपने मनमुताबिक सिनेमा बना रहे हैं. कुछ कहानियों में बेवजह सेंसर अड़ंगा लगाता है. कलात्मक प्रतिबंध लग जाते हैं. यदि कहानी में अपराधी किस्म के किरदार हैं, तो वह अच्छी भाषा में बात नहीं करेंगें, गाली गलौज ही करेंगे.

 

आप एक तरफ अपने समकक्ष कलाकारों, दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन या रजनीकांत जैसे कलाकार, तो वहीं तीसरी तरफ नए कलाकारों के संग भी काम कर रहे हैं. तो क्या फर्क पाते हैं?

अमिताभ बच्चन

अमिताभ बच्चन सर तो लीजेंड हैं. उनको तो पीढ़ियां देखती आ रही हैं. हम तो दूसरी पीढ़ी हैं. वह अभी भी लोकप्रियता के शिखर पर हैं, तो उनमें कुछ तो अद्भुत गुण होंगे. मैं केबीसी में अमिताभ बच्चन जी को मिला, तो उनकी आयु और उनकी उर्जा देखकर मैं स्तब्ध था. मैं केवल कल्पना कर रहा था कि इनकी उम्र में मैं इनके जितना सक्रिय रहूँगा या नहीं? उनका पर्सोना अद्भुत है.

उनके अंदर धैर्य है. मुझे तो वह इलहाबाद के जोगिंग करने वाले युवक लगे. हमसे तो वह इलाहाबादी में ही बतिया रहे थे. इन लोगों को देखकर जिजीविशा और उद्यम शीलता का अहसास होता है. हमेशा अपनी कला की समझ में, क्राफ्ट में, व्यवसाय में प्रयासरत रहना चाहिए. वह आज भी युवा पीढ़ी को कैच करने की क्षमता रखते हैं. नई पीढ़ी को मनोरंजन में क्या चाहिए, इसकी उन्हें समझ है. तभी तो लोग उन्हें देखते हैं. उनके दीवाने हैं.

रजनीकांत

 

जहां तक रजनीकांत सर का सवाल है, तो वह सिनेमा के परदे पर

अलग नजर आते हैं. जबकि निजी जीवन में वह जिस तरह से हैं, उसी तरह से नजर आते हैं. निजी जीवन में वह लुंगी पहनकर नजर आते हैं. उनमें कभी कोई बनावटी पन नजर नहीं आया. मुझे हमेशा लगता है कि अभिनेता ही क्यों, किसी भी इंसान को, फिर चाहें वह जिस पेशे में हो, उसे अपने मूल स्वरूप को नहीं भूलना चाहिए. मान लिया कि अभिनय का पेशा ऐसा है, वहां ग्लैमर व तड़क भड़क चाहिए. पर यह सब आप परदे पर दिखाएं, निजी जिंदगी में आप जैसे हैं, वैसे ही नजर आएं, तो ज्यादा अच्छा है. इसी वजह से मैं रजनीकांत से बहुत प्रभावित था. इसी वजह से मैंने उनके साथ फिल्म ‘काला’की थी. रजनीकांत से मिलने के बाद मैंने उनको समझा. उनके व्यक्तित्व को समझा. मैंने सुना था कि वह हर साल कुछ समय के लिए हिमालय पर जाते हैं. इस बारे में मैंने उनसे बात की. तो उन्होंने खुद स्वीकार किया कि वह हर साल 25 से 30 दिन के लिए हिमालय पर जाते

हैं. उन्होंने बताया कि वहां वह अकेले रहते हैं, कोई उनके साथ नहीं होता. उन्होंने कहा कि यदि आपकी आंखों में दृष्टि हो, तो हिमालय सिर्फ पहाड़ नहीं,बहुत कुछ हैं. मुझे उनके आध्यात्मिक पक्ष को जानने का मौका मिला. मुझे अहसास

हुआ कि वह कितनी विनम्र हैं. उन्हें पता था कि मैं उत्तर भारत से हूं. तो वह अक्सर पूछते थे कि हमें चेन्नई में अच्छा लग रहा हैं या नहीं. वहां का भोजन मुझे पसंद आ रहा है या नहीं...

तो अमिताभ बच्चन जी हो या रजनीकांत सर हो, यह अद्भुत

लोग हें. इनसे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता

है. इन्हें काम करते हुए देखकर भी सीखने को मिलता है.

 

अब आप किस तरह की फिल्में करने को प्राथमिकता दे रहे हैं?

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अब मैं यथार्थप्रद कहानीवाली फिल्मों को प्राथमिकता देता हॅूं. लेकिन साथ ही साथ कलाकार के लिए और कहानीकार के लिए हमारी जो बहुत बड़ी शक्ति होती है, वह एक अभिनेता की कल्पना है. हम तो इसका इस्तेमाल करते हैं. क्योंकि अगर कहानी सुनाने में हम कल्पना का उपयोग नहीं करेंगे, तो फिर उस कहानी में भी मजा नहीं आएगा. क्योंकि कल्पना जो है, वह यथार्थ से ज्यादा असर देता है. अगर आपके अंदर कल्पना शीलता अच्छे से है, तो उसका असर यथार्थ से भी कहीं ज्यादा हो सकता है.

यदि आप अपनी यात्रा सुनाएं,पर आप अपने गांव से ना जुड़े हों,तो आपकी कल्पना भी बहुत ज्यादा ऊंची उड़ान नहीं ले

सकती?

आपने एकदम दुरूस्त फरमाया. क्योंकि कल्पना तो आपके जीवन से ही जुड़ी है. कल्पना बहुत भयानक तौर से यथार्थ से जुड़ी होती है. आपके पास जितना अनुभव होगा, आप उतने ही ज्यादा कल्पनाशील हो सकते हैं. मैंने तो अपने जीवन के 25 वर्ष गांव में गुजारे हैं. बाकी के बचे 23 वर्ष दिल्ली व मुंबई जैसे महानगरों में गुजारा है. मैं एक ऐसा कलाकार हूँ ,जिसने दसवीं कक्षा की पढ़ाई तक खेतों में भी काम किया है. बिना बिजली के दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई व जीवन जिया है. सच यही है कि मेरे गांव में बिजली नहीं थी. जब मैंने ग्रेजुएशन की पढ़ाई शुरू की, तब मेरे गांव में बिजली आयी.

मैं इकलौता कलाकार हूँ, जिसने गांव की नदी में तैरना सीखा. अभिनेता बनने के बाद जीवन में कभी कभी लंदन या कैलीफोर्निया या लॉस एंजिल्स के स्वीमिंग पूल में नहा लिए, पर मेरे पास तो गाँव की नदी में स्नान करने का अनुभव भी है. बेवर्ली हिल्स के पुल का भी अनुभव है. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर कल्पनाशीलता तो मेरे पास आनी ही चाहिए. हम लोग कल्पनाशीलता में बहुत रहते हैं. मैं भले ही मुंबई में बैठा हूं, पर मेरे दिमाग से मैं अपने गाँव में हमेशा रहता हूं.  कल्पना में तो वही है. जब मैं लंदन गया, तो मैंने वहाँ भी कई तरह की जानकारियाँ इकट्ठा करने की कोशिश की.

वहाँ पर मुझे पता चला कि वहां पर मिनिमम पगार यानि कि न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान है. आप चाहे लंदन में काम करें या इंग्लैंड के किसी अन्य शहर या छोटे कस्बे में काम करें, या युनाइटेड किंगडम के किसी छोटे से गाँव में काम करें, तो वहां हर जगह एक समान न्यूनतम मजदूरी निर्धारित है. वहाँ पूर्व निर्धारित है कि आपको मजदूरों को इतनी राशि देना ही देना है. हमें पता है कि हमारे देश की आबादी बहुत ज्यादा है. अगर एक काम है, तो उसे करने वाले दस लोग हैं. ऐसे में यदि यहाँ भी न्यूनतम मजदूरी तय की जाए, तो भी कोई आकर कहेगा कि हम इससे कम राशि में काम कर देंगे, हम से करवा लीजिए. क्योंकि हाथ ज्यादा है, काम कम है. रोटी कम है, खाने वाले ज्यादा हैं. ऐसे में मुझे लगता है कि गांधीजी की कल्पना को लागू किया जाना चाहिए.

हर ग्राम पंचायत स्वतंत्र हो. स्वराज मतलब ग्रामीण स्तर पर लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जाए. यह बहुत जरूरी है. मेरे गाँव के वह लोग जो सूरत और गुड़गांव में नौकरी करते हैं, उन्हे गाँव में ही काम मिले और उतने ही पैसे मिलें, तो वह गाँव में ही रहेगा. गुड़गांव में काम कर रहे मेरे गाँव के एक इंसान से अभी कुछ दिन पहले मेरी बात हुई थी, उसने कहा कि अगर उसे गुड़गांव मे मिल रही राशि से आधी राशि भी गाँव में मिल जाए, तो वह कभी भी गाँव न छोड़ता. तो हमें कुछ ऐसा करना पड़ेगा, जिससे देष के हर गांव में रोजगार का सृजन हो और लोगों को गाँव कम छोड़ना पडे़.

 

आपके लिए सिनेमा क्या है?

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मेरी राय में सिनेमा की जिम्मेदारी है कि वह मनोरंजन देने के साथ साथ लोगों को जागरूक करे. इसलिए समाज में जो कुछ हो रहा हो, उसको लेकर फिल्म के अंदर तीखा व्यंग्य जरूर किया जाना चाहिए.एक कलाकार होने के नाते मैं चाहता हूँ कि दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ वह कुछ सीखे. मनोरंजन बहुत जरुरी है. सिर्फ प्रवचन देना सिनेमा का मकसद नहीं है.

 

इन दिनों नया क्या कर रहे हैं?

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‘फुकरे 3’ की शूटिंग खत्म की है.‘मिर्जापुर 3’ की शूटिंग चल रही है. एक नई फिल्म व एक नई वेब सीरीज की शूटिंग उसके बाद करुँगा.

 

 



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